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Baali : Adhyay 1 (Comics) | Devendra Pandey || बाली : अध्याय 1

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बाली : अध्याय 1 (कॉमिक्स)

कहते है इंसान अब इंसान नही रहा, वह दानव बन चुका है।

मैं इन्ही दानवों का शिकारी हूँ, दानव चाहे इंसान के भीतर छिपा हो या उसकी खाल ओढ़े बैठा हो, मैं सबका अंत कर दूंगा!

सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग तक छिपा हुआ एक रहस्य, एक ऐसी शक्ति, जो सम्पूर्ण विश्व के साथ-साथ एक समूचे युग को परिवर्तित करने की क्षमता रखती थी।

“यह समाज। यहाँ सभी कलाकार हैं, जो सामाजिक होने का ढोंग करते हैं। किन्तु वास्तविकता क्या है इस समाज की? वास्तविकता यह है कि यह समाज सड़ चुका है, लोग मर चुके हैं, भावनायें मर चुकी हैं, इंसानियत आखिरी साँसे ले रही है। सभी अपने वजूद की लाशें ढो रहें हैं। इन लाशों में यह पशु रुपी कीड़े लग चुके है, जो मुर्दाखोर है। इन्हें इससे कोई मतलब नही है कि ये लाश किसकी है, बस उसे अंदर ही अंदर खाये जा रहे हैं, नोच रहे हैं, खोखला किये जा रहे हैं। इस सभ्य समाज का यही असला चेहरा है, बदबूदार, सड़ांध मारता जिंदा लाशों का कब्रिस्तान है यह समाज।

मैं कौन हूँ? इस कब्रिस्तान में जीवित बचा एक इंसान, जिसका जमीर, जिसका वजूद अब भी जीवित है, लेकिन पहचान लाश बन चुकी है!”

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Description

बाली : अध्याय 1 (कॉमिक्स)

देवेन्द्र पाण्डेय द्वारा रचित बेस्ट सेलिंग “बाली” शृंखला

फ्लाईड्रीम्स कॉमिक्स मे एक Superhero का आगमन…

पृष्ठ: 32

चित्रांकन : शाहनवाज़ खान

संपादन- अनुराग सिंह, मिथिलेश गुप्ता

शब्दांकन- निशांत पराशर


कहते है इंसान अब इंसान नही रहा, वह दानव बन चुका है।

मैं इन्ही दानवों का शिकारी हूँ, दानव चाहे इंसान के भीतर छिपा हो या उसकी खाल ओढ़े बैठा हो, मैं सबका अंत कर दूंगा!

सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग तक छिपा हुआ एक रहस्य, एक ऐसी शक्ति, जो सम्पूर्ण विश्व के साथ-साथ एक समूचे युग को परिवर्तित करने की क्षमता रखती थी।

“यह समाज। यहाँ सभी कलाकार हैं, जो सामाजिक होने का ढोंग करते हैं। किन्तु वास्तविकता क्या है इस समाज की? वास्तविकता यह है कि यह समाज सड़ चुका है, लोग मर चुके हैं, भावनायें मर चुकी हैं, इंसानियत आखिरी साँसे ले रही है। सभी अपने वजूद की लाशें ढो रहें हैं। इन लाशों में यह पशु रुपी कीड़े लग चुके है, जो मुर्दाखोर है। इन्हें इससे कोई मतलब नही है कि ये लाश किसकी है, बस उसे अंदर ही अंदर खाये जा रहे हैं, नोच रहे हैं, खोखला किये जा रहे हैं। इस सभ्य समाज का यही असला चेहरा है, बदबूदार, सड़ांध मारता जिंदा लाशों का कब्रिस्तान है यह समाज।

मैं कौन हूँ? इस कब्रिस्तान में जीवित बचा एक इंसान, जिसका जमीर, जिसका वजूद अब भी जीवित है, लेकिन पहचान लाश बन चुकी है!”

 

Additional information

Weight 0.15 kg
Dimensions 25 × 15 × 1 cm
Pages

420

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