Description
पाप का मंदिर
लेखक – परशुराम शर्मा
पृष्ठ – 194
‘पाप का मन्दिर’ हमारी संस्कृति के वर्तमान समाज पर एक चोट है । आज के युग में देवता बनना जितना आसान है, इंसान बनना उतना ही मुश्किल है । इसी विषय पर यह उपन्यास लिखा गया है । इसके अतिरिक्त बहुत से पेचीदा सवाल इसमें उछाले गए हैं । सैशन कोर्ट किसी व्यक्ति को यदि मृत्यु दंड की सजा देता है तो हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के उपरान्त वही शख्स बाइज्जत बरी हो जाता है । ऐसी स्थिति में कौन से कोर्ट का जजमेंट दोषपूर्ण है, और ऐसी व्यवस्था क्यों है । एक व्यक्ति जो सजा के योग्य नहीं था, उसे सजा ही क्यों दे दी गयी ? इस प्रश्न को गम्भीरता से लिया गया है ।
सियासी लोगों की साजिशें, पुलिस के अधिकार और कानून की कमजोरियाँ इन सबको धर्म और अंधविश्वास के तराजू पर तौला गया तो पलड़ा किसका भारी निकला ? क्या धर्म की आड़ में बहुत से गैर कानूनी काम हो सकते हैं ? क्या कानून और पुलिस सियासी लोगों के शिकंजे में फंस चुकी है — क्या निर्दोष लोगों की बर्बर हत्याओं के जिम्मेदार यही लोग हैं ? इन सब सवालों को ‘पाप का मन्दिर’ उठाता है ।
सियासी लोगों की साजिशें, पुलिस के अधिकार और कानून की कमजोरियाँ इन सबको धर्म और अंधविश्वास के तराजू पर तौला गया तो पलड़ा किसका भारी निकला ? क्या धर्म की आड़ में बहुत से गैर कानूनी काम हो सकते हैं ? क्या कानून और पुलिस सियासी लोगों के शिकंजे में फंस चुकी है — क्या निर्दोष लोगों की बर्बर हत्याओं के जिम्मेदार यही लोग हैं ? इन सब सवालों को ‘पाप का मन्दिर’ उठाता है ।
पाप का मंदिर का दूसरा भाग है – ‘दंगा फसाद’
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